Tuesday, June 14, 2011

वन गेट की एक शाम

वन गेट की एक शाम  
वो सो  रहा था
टपकती  बूंदों से बचते
पावों को समेट, फटी
धोती को कम्बल बना
कच्चे सपनो में रो   रहा था,
वो सो रहा था....

सरसराती हवाओं से सुन्न
सिकुड़े  पेट पे हाथ दबाकर
भूख भुलाते , भीगे स्वान को
अधभिगे चबूतरे में आने से
रोकने को टोह रहा था
वो सो रहा था....

चमकती बिजलियाँ, गडगडाहट
बौछारों  की आहट, धीमे से
रूकती तन की सुगबुगाहट
रुग्न क़तर शरीर ,
मृत्यु को मोह रहा था
वो सो रहा था...


No comments:

Post a Comment